आलेख
भाव, प्रभाव, स्वभाव और अभाव
नमस्कार मित्रों,
ऊपर के शीर्शक से आपका क्या सम्बन्ध है? यह तो आप स्वयं तय करेंगे, लेकिन इसके मूल में जहाँ आपको देश के चुनिंदा नायकों से नेतृत्व करने वाले महानुभावों से आप रूबरू होते हैं, वहीं आपका जो भाव है, जो सोच है उसको आप पुश्ट करते हैं और यह पुश्टि व्यक्ति के मन और मस्तिश्क में उन भावों के जागरण के बाद होती है जो गरिमामय, वैभवपूर्ण कार्यक्रमों को देखने के बाद हमारे अन्दर जागती है। जैसे पूजा करते समय हम भगवान को पुश्प धराते हैं, उन्हें वस्त्र पहनाते हैं और उनके सन्मुख भोग लगाते हैं। भोग लगाने के बाद ईश्वर उस भोग को यथार्थ रूप में नहीं खाता लेकिन हमारे मन के भाव यह अनुभूति देते हैं कि यह भोग में ईश्वर को धर रहा हूँ और वो मेरे इन भावों के माध्यम से प्रसाद के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। यही भाव आपकी पूजा को यथार्थ रूप में परिणीत कर आपके अन्दर एक ऐसी ऊर्जा भरता है जिससे आप अपने आपको शक्तिशाली अनुभव करते हैं तब आपकी पूजा सार्थक हो जाती है।
भावहीन प्रार्थना या भावहीन पूजा कोई मायने नहीं रखती। इसलिए कईं बार मन्दिर में आने वाले भक्त ईश्वर को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन वो पुजारी जो नियमित पूजा करता है एक नौकरी की तरह आरती उतारता है, उसे ईश्वरीय तत्त्व कभी प्राप्त नहीं होता। यदि वह उसे नौकरी समझकर करेगा तो और यदि वह रामकृश्ण की तरह पुजारी है तो वह पूजा करते-करते पहले प्रसाद स्वयं चख लेगा कि ईश्वर को जो प्रसाद मैं भोग लगा रहा हूँ वह खाने योग्य है भी या नहीं। ऐसे व्यक्ति को ईश्वर सहज और सरल रूप में प्राप्त हो जाते हैं। यहाँ भाव महत्वपूर्ण हैं क्रिया नहीं।
यहाँ भाव के पीछे एक ही है कि आप अपने प्रभाव से और आभामण्डल से जुड़े हुए हैं या आप अपने सेवा भाव से जुड़े हुए हैं। यदि आप सेवा भाव से जुड़े हुए हैं तो वो चकाचैंध, वो ग्लैमर, वो ऊँचे बैनर आपको सन्तुश्टि नहीं देंगे, लेकिन आपने कहीं रक्तदान किया है, किसी गरीब को कहीं ऊनी वस्त्र भेंट किया है, कहीं जाकर कम्बल भेंट की है या किसी चिकित्सा शिविर में कईयों का मोतियाबिन्द ठीक किया है, या थेलिसिमिया के पेशेन्ट को आपने ठीक किया है, या किसी की आपने हार्ट सर्जरी की है, या जयपुर फुट प्रदान किया है तो आपकी यह भावनाएँ आपको एक विचित्र सन्तुश्टि को जन्म देती हैं और यही सन्तुश्टि आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
जब आपके यह भाव निरन्तर इसी क्रम में बहते रहते हैं और इसी भाव को जब आप आगे बढ़ाते रहते हैं तब आपका यह सेवा का भाव स्वभाव में परिवर्तित हो जाता है और जब स्वभाव आपके मन के अन्तर्भावों से सीधा जुड़ा हुआ है, आपके एक ऐसे आभामण्डल को निर्मित करता है जिसे हम प्रभाव कहते हैं और व्यक्ति जब चलता है तो उसके पीछे का आभामण्डल कोई सूर्य की तरह गोला बनकर साथ नहीं चलता, आप द्वारा किए गए कार्य ही उसका प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यही प्रभाव जहाँ व्यक्ति खड़ा होता है वहाँ अपनी ऊर्जा को वहाँ बिखेरना शुरू करता है। लेकिन इससे परे एक चीज़ है वह है ‘अभाव’ और वह अभाव अपने भावों की अनुभूति को यदि आप सूक्ष्मतम स्तर पर रख पाते हैं और किसी भी काम को करने से पहले जब आप बिना भाव के उसको आगे बढ़ाते हैं तो वह भावनाहीन काम अभाव के रूप में दिखता है, उसके वो परिणाम नहीं आते। किसी व्यक्ति के अन्दर आत्मा बसती है तो ही वह व्यक्ति व्यक्ति है। यदि उसकी आत्मा तिरोहित हो जाए तो वो जिन्दा लाश की तरह होता है। यही भाव, स्वभाव, प्रभाव और अभाव है।
मित्रों! आप अपने जीवन में भावों को महत्वपूर्ण मानिये अन्यथा झूठे प्रभाव ज्यादा दिन तक टिकते नहीं और यदि झूठे प्रभाव से आप अपने जीवन अपना स्वभाव बना लेते हैं तो फिर आप निरन्तर अभाव की ओर बढ़ते रहेंगे। इसलिए भावों को अर्पण करिये, भगवान के चरणों में ही नहीं, दरिद्र नारायण के चरणों में भी तो वह आपका स्वभाव बनेगा और उससे आपका प्रभाव बढ़ेगा अन्यथा तो सर्वत्र भावनाओं का अभाव ही अभाव है।
डाॅ. प्रदीप कुमावत
लेखक, षिक्षाविद्,
सम्प्रति निदेषक
आलोक संस्थान
उदयपुर, राजस्थान
भाव, प्रभाव, स्वभाव और अभाव
नमस्कार मित्रों,
ऊपर के शीर्शक से आपका क्या सम्बन्ध है? यह तो आप स्वयं तय करेंगे, लेकिन इसके मूल में जहाँ आपको देश के चुनिंदा नायकों से नेतृत्व करने वाले महानुभावों से आप रूबरू होते हैं, वहीं आपका जो भाव है, जो सोच है उसको आप पुश्ट करते हैं और यह पुश्टि व्यक्ति के मन और मस्तिश्क में उन भावों के जागरण के बाद होती है जो गरिमामय, वैभवपूर्ण कार्यक्रमों को देखने के बाद हमारे अन्दर जागती है। जैसे पूजा करते समय हम भगवान को पुश्प धराते हैं, उन्हें वस्त्र पहनाते हैं और उनके सन्मुख भोग लगाते हैं। भोग लगाने के बाद ईश्वर उस भोग को यथार्थ रूप में नहीं खाता लेकिन हमारे मन के भाव यह अनुभूति देते हैं कि यह भोग में ईश्वर को धर रहा हूँ और वो मेरे इन भावों के माध्यम से प्रसाद के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। यही भाव आपकी पूजा को यथार्थ रूप में परिणीत कर आपके अन्दर एक ऐसी ऊर्जा भरता है जिससे आप अपने आपको शक्तिशाली अनुभव करते हैं तब आपकी पूजा सार्थक हो जाती है।
भावहीन प्रार्थना या भावहीन पूजा कोई मायने नहीं रखती। इसलिए कईं बार मन्दिर में आने वाले भक्त ईश्वर को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन वो पुजारी जो नियमित पूजा करता है एक नौकरी की तरह आरती उतारता है, उसे ईश्वरीय तत्त्व कभी प्राप्त नहीं होता। यदि वह उसे नौकरी समझकर करेगा तो और यदि वह रामकृश्ण की तरह पुजारी है तो वह पूजा करते-करते पहले प्रसाद स्वयं चख लेगा कि ईश्वर को जो प्रसाद मैं भोग लगा रहा हूँ वह खाने योग्य है भी या नहीं। ऐसे व्यक्ति को ईश्वर सहज और सरल रूप में प्राप्त हो जाते हैं। यहाँ भाव महत्वपूर्ण हैं क्रिया नहीं।
यहाँ भाव के पीछे एक ही है कि आप अपने प्रभाव से और आभामण्डल से जुड़े हुए हैं या आप अपने सेवा भाव से जुड़े हुए हैं। यदि आप सेवा भाव से जुड़े हुए हैं तो वो चकाचैंध, वो ग्लैमर, वो ऊँचे बैनर आपको सन्तुश्टि नहीं देंगे, लेकिन आपने कहीं रक्तदान किया है, किसी गरीब को कहीं ऊनी वस्त्र भेंट किया है, कहीं जाकर कम्बल भेंट की है या किसी चिकित्सा शिविर में कईयों का मोतियाबिन्द ठीक किया है, या थेलिसिमिया के पेशेन्ट को आपने ठीक किया है, या किसी की आपने हार्ट सर्जरी की है, या जयपुर फुट प्रदान किया है तो आपकी यह भावनाएँ आपको एक विचित्र सन्तुश्टि को जन्म देती हैं और यही सन्तुश्टि आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
जब आपके यह भाव निरन्तर इसी क्रम में बहते रहते हैं और इसी भाव को जब आप आगे बढ़ाते रहते हैं तब आपका यह सेवा का भाव स्वभाव में परिवर्तित हो जाता है और जब स्वभाव आपके मन के अन्तर्भावों से सीधा जुड़ा हुआ है, आपके एक ऐसे आभामण्डल को निर्मित करता है जिसे हम प्रभाव कहते हैं और व्यक्ति जब चलता है तो उसके पीछे का आभामण्डल कोई सूर्य की तरह गोला बनकर साथ नहीं चलता, आप द्वारा किए गए कार्य ही उसका प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यही प्रभाव जहाँ व्यक्ति खड़ा होता है वहाँ अपनी ऊर्जा को वहाँ बिखेरना शुरू करता है। लेकिन इससे परे एक चीज़ है वह है ‘अभाव’ और वह अभाव अपने भावों की अनुभूति को यदि आप सूक्ष्मतम स्तर पर रख पाते हैं और किसी भी काम को करने से पहले जब आप बिना भाव के उसको आगे बढ़ाते हैं तो वह भावनाहीन काम अभाव के रूप में दिखता है, उसके वो परिणाम नहीं आते। किसी व्यक्ति के अन्दर आत्मा बसती है तो ही वह व्यक्ति व्यक्ति है। यदि उसकी आत्मा तिरोहित हो जाए तो वो जिन्दा लाश की तरह होता है। यही भाव, स्वभाव, प्रभाव और अभाव है।
मित्रों! आप अपने जीवन में भावों को महत्वपूर्ण मानिये अन्यथा झूठे प्रभाव ज्यादा दिन तक टिकते नहीं और यदि झूठे प्रभाव से आप अपने जीवन अपना स्वभाव बना लेते हैं तो फिर आप निरन्तर अभाव की ओर बढ़ते रहेंगे। इसलिए भावों को अर्पण करिये, भगवान के चरणों में ही नहीं, दरिद्र नारायण के चरणों में भी तो वह आपका स्वभाव बनेगा और उससे आपका प्रभाव बढ़ेगा अन्यथा तो सर्वत्र भावनाओं का अभाव ही अभाव है।
डाॅ. प्रदीप कुमावत
लेखक, षिक्षाविद्,
सम्प्रति निदेषक
आलोक संस्थान
उदयपुर, राजस्थान
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