Dr. Pradeep Kumwat

Friday, 15 May 2015
Wednesday, 13 May 2015
Wednesday, 25 March 2015
Nav Samwatsar
उत्सव के रंग-नव सम्वत्सर के संग
भारतीय ही नहीं वैष्विक विरासत हैं नवसंवत्सर
भारतीय ही नहीं वैष्विक विरासत हैं नवसंवत्सर
भारतीय परम्परा एवम् संस्कृति::: किसी भी राश्ट्र की चेतना उसके विकास यात्रा के साथ-साथ उन परम्पराओं और इतिहास में समाहित होती हैं जिससे उस राश्ट्र की संस्कृति का परिचय प्राप्त होता है। जहाँ सारी दुनिया सिमट कर एक वैष्विक गाँव में परिवर्तित हो गई है। ऐसे में हर एक राश्ट्र के लिए अब चुनौती यह हो गई कि अपनी परम्परागत संस्कृति को और उस विरासत को किस तरह बचाकर रखा जाये जो सदियों से अनवरत कईं उतार-चड़ाव और थपेड़ों के बाद भी जो जारी है, उस संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए आज सारे विष्व में गम्भीर चुनौती के रूप में इसे देखा जा रहा है। जो राश्ट्र अपने राश्ट्रीय चरित्र को विकसित कर अपनी परम्पराओं के निर्वहन के लिए कटिबद्ध हैं वे आज भी अपनी परम्पराओं के साथ जिन्दा हैं, उन्हें अपनी संस्कृति पर गर्व है तथा वे गर्व से अपने राश्ट्रीय चिन्तन, संस्कृति, परम्परा, धर्म और अपनी रीति-रिवाजों के प्रति उनका समर्पण नज़र आता है। लेकिन भारतवर्श के मामले में जहाँ अनेक संस्कृतियाँ यहाँ आकर समाहित हुई, वहीं मुगलों, हूण, कुशाण और कालान्तर में अंग्रेजों ने हम पर राज किया और हम इन सबके बावजूद अपनी संस्कृति को बचा पाए। षायद हमारी संस्कृति की जड़ें इतनी प्रभावी हैं कि उनको जड़ से उखाड़ फेंकना असम्भव है लेकिन आजादी के बाद हम जिस तरह से विकास यात्रा के साथ अपनी परम्पराओं को छोड़ना प्रारम्भ किया, उन सब परम्पराओं के बीच में हमारी अपनी नव सम्वत्सर की परम्परा जो चैत्र षुक्ल एकम के दिन हम मनाते हैं वह 1 जनवरी की गूँज में पता नहीं कहीं खो गई है। क्यों नहीं हम अपने नव सम्वत्सर के बारे में यह जानकारी अधिक से अधिक लोगों को पहुँचाकर निज संस्कृति पर गर्व अनुभव कर सकें ताकि युवा पीढ़ी निज परम्पराओं पर गौरव अनुभव कर काले अंग्रेज बनने से बच सके।
विक्रम सम्वत् राष्ट्रीय क्यों? :::: प्रसिद्ध इतिहासकार कनिंघम ने ‘बुक आॅफ इण्डियन ऐराज’ पुस्तक में लिखा है कि - ‘भारत में कम से कम तेरह संवत् तो ऐसे हैं जो व्यापक रूप से इस्तेमाल में आते रहते हैं। कम प्रचलित या अचर्चित सम्वत् सैंकड़ों हो सकते हैं, लेकिन युधिष्ठिर, कलि या युगाब्द सम्वत् का प्रयोग प्राचीन साहित्य और शिलालेखों में प्रचुरता से आता है। उल्लेखनीय है कि ये दोनों सम्वत् इस्वीसन् से बहुत पुराने हैं। सवाल यह है कि इतने प्राचीन व्यावहारिक सम्वत् होते हुए भी हमें इस्वी सन् को अपनाने की जरूरत क्यों पड़ी? ऐसा नहीं है कि भारत में प्रचलित कालगणना त्रृटिपूर्ण है और ग्रेगरी कैलेण्डर इस्वीसन्, माह और तारीखें पूर्णतया युक्तिसंगत हैं। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद सुधी अध्येयता निर्विवाद रूप से इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतीय कालगणना की भारतीय पद्धति ही ज्यादा युक्तिसंगत और वैज्ञानिक है। यूँ तो भारत में कई पंचाग प्रचलित हैं जिनकी गणना सूर्य और चन्द्र की गति पर ही निर्भर करती है और इन सभी पंचांगो का मूलाधार विस्तृत रूप में विक्रम सम्वत् के आधार पर ही टीका हुआ है। अतः चैत्र शुक्ला प्रतिपदा ही राष्ट्रीय आधार पर हमारा नूतन सम्वत माना जाता है । यहीं वर्श प्रतिपदा हमारा नववर्श है।
नव सम्वत्सर महोत्सव क्यों व कैसे?:::: हमारे मनीषियों के गहन अध्ययन के पश्चात् पृथ्वी के भ्रमण कक्ष की खोज की थी और तद्नुसार सौरमण्डल के अन्तर्गत् ग्रहों और नक्षत्रों की स्थितियों का ज्ञान किया था। इसी पर आधारित दिन, मास और वर्ष की सुस्पष्ट अवधारणा देकर एक विधिवत् पंचाग का ज्ञान हमें दिया था। हमें यह प्रकट करते हुए गर्व है कि आज भी हमारी संस्कृति के दैनिक व्रत, त्यौहार, धार्मिक अनुष्ठान उन्हीं तिथियों के आधार पर मनाते हैं। भारतीय नववर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही माना जाता हैं और इसी दिन से ग्रहों, वारो, मासों और संवत्सरों को प्रारंभ गणितीय और खगोल शास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता हैं। आज भी जन मानस से जुडी़ हुई यहीं शास्त्र सम्मत कालगणना व्यावहारिकता की कसौटी पर खरी उतरी हैं। इसे राष्ट्रीय गौरवशाली परंपरा का प्रतीक माना जाता हैं। विक्रमी संवत् किसी संकुचित विचारधारा या पंथाश्रित नहीं हैं। यह संवतसर किसी देवी, देवता या महान् पुरूष के जन्म पर आधारित नहीं, इसवी या हिजरी सन् भी मूल रूप से गणना की दृश्टि से इसी पंचाग को आधार बनाकर अपनी गणना करते है। हिजरी सम्वत् भी इसी गणना को मानता है लेकिन उनकी गणना चन्द्रमा से प्रारम्भ होती है और यहीं वजह ळै कि सिंध प्रांत कके निवासी जो अब सिंधी कहलाते है। चैत्र के चन्द्रमा को ही षुरूआत मानकर चेटीचण्ड पर्व मनाते है जिसका अर्थ ही चैत्र का चन्द्रमा है।
हमारा नव सम्वत्सर इतिहास के पन्नों से::::: एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्श पूर्व इसी दिन के सुर्याेदय से ब्रह्माजी ने जगत की रचना प्रांरभ की। इतिहास के झरोखों में देखा जाए तो ब्रह्माजी द्वारा सृश्टि की रचना, मर्यादा पुरुशोत्तत श्री राम का राज्याभिशेक, माँ दुर्गा की उपासना, नवरात्रि का प्रारम्भ, युधिश्ठिर सम्वत् का आरम्भ, उज्जैयिनी सम्राट विक्रमादित्य का विक्रमी सम्वत् का प्रारम्भ, षालिवाहन षक सम्वत् जो भारत सरकार का राश्ट्रीय पंचांग है। सम्वत्सर सृश्टि की रचना के समय से ही प्रचलित है तो इससे पुरातन कोई सम्वत् हो ही नहीं सकता। समय- समय पर राजाओं के षौर्य का सम्मान देने सम्वत्सर के आगे राजा का नाम जोड़ यष और कीर्ति को स्थायी करने की परम्परा चल निकली उसमें षालि वाहन सम्वत् व कालान्तर में विक्रमादित्य के नाम से सम्वत्सर को जोड़ा गया है जो चिरकाल पर चलन में आकर सम्वत्सर के आगे की अटक बन गया है तभी से सम्वत्सर के आगे विक्रम षब्द स्थायी चलन में परिवर्तित होकर विक्रम सम्वत् बन गया।
देव भूमि भारत:::: हमारी गौरवशाली परंपरा विशुद्व अर्थों में प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्वांतों पर आधारित हैं और भारतीय कालगणना का आधार पूर्णतया पंथ निरपेक्ष हैं। प्रतिपदा का यह शुभ दिन भारत राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक हैं। प्रकृति भी अपना नया वर्श चैत्र मास में ही प्रारम्भ करती है। इसके वृक्ष, लताएँ और नई कौंपलें चैत्र मास में फूटती हैं। वैसे तो सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग में जो कालखण्ड गुजरे हैं भारतीय काल गणना के अनुसार 1960853110 वर्श काल गणना के अनुसार आज तक माने गए हैं। शड् ऋतुओं का यह देष जिसे हम भारतवर्श कहते हैं काल चक्र की दृश्टि से और देवताओं के हिसाब से सबसे श्रेश्ठ स्थान पृथ्वी पर भारतवर्श को इसलिए माना गया क्योंकि छः ऋतुओं किसी और देष में नहीं होतीं। इसीलिए इसे देवभूमि भी कहा है। ऋग्वेद इस बात की पुश्टि करता है कि यह भूमि वस्तुतः यही भूखण्ड पूरा जिसे हम भारतवर्श कहते हैं यह देवताओं की ही भूमि रही है।
त्योहारों का संगम हैं नवसंवत्सर::::: हममें से अधिकांष लोग अपनी इस प्राचीन परम्परा को या तो भूल गए हैं या आधुनिकता की इस दौड़ में हम उसे याद नहीं रख पा रहे हैं। क्योंकि हमने अपनी सुविधा के हिसाब से ग्रिगोरियन कलैण्डर जनवरी, फरवरी को ही रोजमर्रा में इस्तेमाल होना मान लिया है। जबकि सत्य इससे परे है। भारतवर्श के प्रत्येक त्योहार, पर्व, व्रत, उपवास, मुहूर्त, षादी, ग्रह-प्रवेष, षुभ मुहूर्त सभी कुछ हमारे भारतीय नववर्श यानि विक्रम सम्वत् के पंचांग के आधार पर ही हमारे सारी गणना व्रत, उपवास, त्योहार इत्यादि तय होते हैं। हमारी गौरवषाली परम्पराओं में गणितीय और खगोलीय दृश्टि से भी यह पंचांग सारी दुनिया में सर्वश्रेश्ठ है इसमें लेषमात्र भी त्रुटि नहीं है और आज भी जनमानस से जुड़ी षास्त्र सम्मत काल गणना व्यावहारिक रूप से भी पूरी तरह से खरी उतरी है। इसे राश्ट्रीय गौरवषाली परम्परा का प्रतीक मानना चाहिये। इस दिन के साथ निम्न बाते भी जुड़ी हुई है: सृश्टि की रचना का दिन, राम का राज्याभिशेक, नवरात्र स्थापना, गुरू अंगद देव का जन्मदिवस, डाॅ. हेडगेवार का जन्मदिवस, आर्य समाज की स्थापना, धर्म राज्य युधिश्ठर का राज्याभिशेक।
शुक्ल पक्ष ही पवित्र:::: मूलतः यह नव सम्वत्सर के रूप में ही हमारे देष में सदियों-सदियों से मनाया जाता रहा है। चैत्र षुक्ल प्रतिपदा यानि षुक्ल पक्ष, ऋग्वेद के आधार पर षुक्ल पक्ष ही हमारी आध्यात्मिक और दैविक षक्तियों का सबसे अत्यधिक प्रभावषाली कालखण्ड माना गया है इसलिए हमारे काल गणना में भी षुक्ल पक्ष से ही नववर्श की प्रतिपदा मानी गई है। कृश्ण पक्ष को नव सम्वत्सर नहीं माना है। अथर्ववेद में भी सम्वत्सर को ईष्वर के सबसे नज़दीक दिवस इसी नववर्श की प्रतिपदा को माना है और वैसे सम्वत्सर का मूल अर्थ देखा जाए तो वर्श ही है।
पर्व एक नाम अनेक:::: इसके वैसे तो कईं नाम है, अलग-अलग प्रदेषों में अलग-अलग नाम हैं। महाराश्ट्र में इसे हम गुडीपड़वा, उगादी भी कहते हैं, यहीं से नववर्श का प्रारम्भ होता है। गुड़ी का अर्थ विजय पताका होती है। कहा जाता है कि षालीवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़क कर उसमें प्राण फूँक दिये और सेना की मदद से षक्तिषाली षत्रुओं को पराजित किया। इसी विजय के प्रतीक के रूप में षालीवाहन षक सम्वत् का प्रारम्भ हुआ। आन्धप्रदेष, कनार्टक में उगादी, महाराश्ट्र मे गुड़ीपाड़वा, कष्मीरी हिन्दुओं के लिए भी यह नवरेक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में नववर्श, पंजाब में बैसाखी, इन्हीं चैत्र के आसपास पन्द्रह-पन्द्रह दिनों के अन्तर में मनाया जाता है।
रोगोपचार का दिन:::: इस अवसर पर आंध्र प्रदेश में, घरों में पच्चडी़/प्रसादम तीर्थ के रूप में बांटा जाता हैं। कहा जाता हैं कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता हैं। चर्म रोग भी दूर होता हैं। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पाली या मीठी रोटी बनाई जाती हैं। इसमें जो चीजें मिलाई जाती हैं, वे हैं-गुड़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आम। गुड़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए, और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक होती हैं। यूं तो आजकल आम बाजार मे मौसम से पहले ही आ जाता हैं। किंतु आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में इसी दिन से खाया जाता हैं। नौ दिन तक मनाया जाना वाला यह त्योहार दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव भी मनाए जाते हैं।
ऋतिुओं का संधिकाल:::: आज भी हमारे देश में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोष आदि के चालन-संचालन में मार्च, अप्रैल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। यह समय दो ऋतुओं का संधिकाल हैं। इसमें राते छोटी और दिन बडे होने लगते हैं। प्रकृति नया रूप धर लेती हैं। प्रतीत होता हैं कि प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जस्वित होती हैं। मानव, पशु-पक्षी, यहा तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्साग सचेतन हो जाती हैं। बसंतोत्सव का भी यही आधार हैं। इसी समय बर्फ पिघलने लगती हैं। आमों पर बौर आने लगता हैं। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती हैं। ईष्वी सन् में भी नये खाते व बजट का चलन मार्च में ही षुभ होता है जो कि भारतीय परम्परा के नववर्श के आधार को ओर पुश्ट करता है।
भारतीय पंचाग के अनुसार 1 जनवरी को आज तक कभी भी किसी षुभ कार्य का मुहूर्त नहीं निकला हैं। जबकि चैत्र षुक्ल प्रतिपदा को प्रवरा अर्थात् वर्शभर की सर्वोतम तिथि माना गया हैं। ऐसा माना जाता हैं कि इस दिन किए गए दान-पुण्यादि कृत्य अनन्त गुने फलदायी होते हैं। इस दिन किसी भी कार्य को करने हेतु पंचांग षुद्वि देखने की आवष्यकता नहीं हैं।
भारतीय पंचाग के अनुसार 1 जनवरी को आज तक कभी भी किसी षुभ कार्य का मुहूर्त नहीं निकला हैं। जबकि चैत्र षुक्ल प्रतिपदा को प्रवरा अर्थात् वर्शभर की सर्वोतम तिथि माना गया हैं। ऐसा माना जाता हैं कि इस दिन किए गए दान-पुण्यादि कृत्य अनन्त गुने फलदायी होते हैं। इस दिन किसी भी कार्य को करने हेतु पंचांग षुद्वि देखने की आवष्यकता नहीं हैं।
अंत में: कितने इतिहासों को अपने अंदर समेटे हुए हैं यह नवसंवत्सर। परंतु, आज भी हममें से अधिकतर भारतीय अपने इस नवसंवत्सर बारे में नहीं जानते, जानते हैं तो सिर्फ एक जनवरी के बारे में कि यही हैं नववर्ष। लेकिन, यह पाश्चात्य देशों का नववर्ष हैं, वो भी सभी पाश्चात्य देशों का नहीं। क्योंकि विश्व के लगभग सभी पाश्चात्य देशों का अपना एक अलग कैलेंड़र होता हैं जिसके आधार पर वह अपना नववर्ष मनाते है। इस वर्ष नवसंवत्सर पर सच्चा संकल्प यहीं होगा कि हम सभी भारतवासी अपने संस्कृति और सभ्यता के बारे में जानने की कोशिश करें एवं उसे अपनाएं तथा हैप्पी न्यू ईयर ना बोले ना स्वीकारे।
डाॅ. प्रदीप कुमावत
लेखक, षिक्षाविद्, प्रखर वक्ता,
समाजसेवी, पर्यावरणविद्
सम्प्रति: निदेषक आलोक संस्थान
उदयपुर (राज.)
लेखक, षिक्षाविद्, प्रखर वक्ता,
समाजसेवी, पर्यावरणविद्
सम्प्रति: निदेषक आलोक संस्थान
उदयपुर (राज.)
Monday, 2 February 2015
Dati Maharaj Alok Visit
दाती महाराज का आलोक Mai भव्य स्वागत व अभिनन्दन
लक्ष्य ऊँचा रखो और हँसते हँसाते रहो जीवन सफल होगा:
दाती महाराज उदयपुर 02 फरवरी। आलोक संस्थान, हिरण मगरी में दाती महाराज के आगमन पर उनका भव्य स्वागत व अभिनन्दन किया गया।
इस अवसर पर उन्होंने बोलते हुये कहा कि जीवन में निराष होने की आवष्यकता नहीं। जीवन सदैव उत्साह से जीना चाहिये। बच्चों से कहा सदा हंसते हंसाते रहो मुस्कराते रहो तो लक्ष्य षीघ्र प्राप्त कर लोगे अन्यथा भटक जाओगे। कोई ग्रह तनाव नहीं देता समय के साथ समायोजन करें।
इससे पूर्व आलोक संस्थान के निदेषक डाॅ. प्रदीप कुमावत ने दाती महाराज का अभिनन्दन करते हुये कहा कि भय से मुक्ति का मार्ग दाती महाराज ने चैनलो के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया है। अभिनन्दन करते हुये डाॅ. कुमावत ने कहा कि षनी के भय को जिस तरह दिखाया गया मानव कल्याण के लिये दाती महाराज ने उसे सही दिषा दी और लोगों को भय मुक्त कर प्रकाष की किरण उनके जीवन में फैलाई।
दाती महाराज के अनेक भक्त है और सेवा के संकल्प को आध्यात्म से जोड़कर दाती जी ने मानव कल्याण का कार्य किया है।
इस अवसर पर आलोक संस्थान के निदेषक डाॅ. प्रदीप कुमावत ने दाती महाराज का महाराणा प्रताप की प्रतिमा, षाॅल, श्रीफल, मेवाड़ी पगड़ी एवं उपरना ओढ़ाकर अभिनन्दन किया।
इस अवसर पर बाल योगी ईष्वरानन्द जी ने भी छात्रांे को सम्बोधित किया।
Sunday, 1 February 2015
Saturday, 17 January 2015
Thursday, 15 January 2015
Monday, 12 January 2015
Bahv
आलेख
भाव, प्रभाव, स्वभाव और अभाव
नमस्कार मित्रों,
ऊपर के शीर्शक से आपका क्या सम्बन्ध है? यह तो आप स्वयं तय करेंगे, लेकिन इसके मूल में जहाँ आपको देश के चुनिंदा नायकों से नेतृत्व करने वाले महानुभावों से आप रूबरू होते हैं, वहीं आपका जो भाव है, जो सोच है उसको आप पुश्ट करते हैं और यह पुश्टि व्यक्ति के मन और मस्तिश्क में उन भावों के जागरण के बाद होती है जो गरिमामय, वैभवपूर्ण कार्यक्रमों को देखने के बाद हमारे अन्दर जागती है। जैसे पूजा करते समय हम भगवान को पुश्प धराते हैं, उन्हें वस्त्र पहनाते हैं और उनके सन्मुख भोग लगाते हैं। भोग लगाने के बाद ईश्वर उस भोग को यथार्थ रूप में नहीं खाता लेकिन हमारे मन के भाव यह अनुभूति देते हैं कि यह भोग में ईश्वर को धर रहा हूँ और वो मेरे इन भावों के माध्यम से प्रसाद के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। यही भाव आपकी पूजा को यथार्थ रूप में परिणीत कर आपके अन्दर एक ऐसी ऊर्जा भरता है जिससे आप अपने आपको शक्तिशाली अनुभव करते हैं तब आपकी पूजा सार्थक हो जाती है।
भावहीन प्रार्थना या भावहीन पूजा कोई मायने नहीं रखती। इसलिए कईं बार मन्दिर में आने वाले भक्त ईश्वर को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन वो पुजारी जो नियमित पूजा करता है एक नौकरी की तरह आरती उतारता है, उसे ईश्वरीय तत्त्व कभी प्राप्त नहीं होता। यदि वह उसे नौकरी समझकर करेगा तो और यदि वह रामकृश्ण की तरह पुजारी है तो वह पूजा करते-करते पहले प्रसाद स्वयं चख लेगा कि ईश्वर को जो प्रसाद मैं भोग लगा रहा हूँ वह खाने योग्य है भी या नहीं। ऐसे व्यक्ति को ईश्वर सहज और सरल रूप में प्राप्त हो जाते हैं। यहाँ भाव महत्वपूर्ण हैं क्रिया नहीं।
यहाँ भाव के पीछे एक ही है कि आप अपने प्रभाव से और आभामण्डल से जुड़े हुए हैं या आप अपने सेवा भाव से जुड़े हुए हैं। यदि आप सेवा भाव से जुड़े हुए हैं तो वो चकाचैंध, वो ग्लैमर, वो ऊँचे बैनर आपको सन्तुश्टि नहीं देंगे, लेकिन आपने कहीं रक्तदान किया है, किसी गरीब को कहीं ऊनी वस्त्र भेंट किया है, कहीं जाकर कम्बल भेंट की है या किसी चिकित्सा शिविर में कईयों का मोतियाबिन्द ठीक किया है, या थेलिसिमिया के पेशेन्ट को आपने ठीक किया है, या किसी की आपने हार्ट सर्जरी की है, या जयपुर फुट प्रदान किया है तो आपकी यह भावनाएँ आपको एक विचित्र सन्तुश्टि को जन्म देती हैं और यही सन्तुश्टि आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
जब आपके यह भाव निरन्तर इसी क्रम में बहते रहते हैं और इसी भाव को जब आप आगे बढ़ाते रहते हैं तब आपका यह सेवा का भाव स्वभाव में परिवर्तित हो जाता है और जब स्वभाव आपके मन के अन्तर्भावों से सीधा जुड़ा हुआ है, आपके एक ऐसे आभामण्डल को निर्मित करता है जिसे हम प्रभाव कहते हैं और व्यक्ति जब चलता है तो उसके पीछे का आभामण्डल कोई सूर्य की तरह गोला बनकर साथ नहीं चलता, आप द्वारा किए गए कार्य ही उसका प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यही प्रभाव जहाँ व्यक्ति खड़ा होता है वहाँ अपनी ऊर्जा को वहाँ बिखेरना शुरू करता है। लेकिन इससे परे एक चीज़ है वह है ‘अभाव’ और वह अभाव अपने भावों की अनुभूति को यदि आप सूक्ष्मतम स्तर पर रख पाते हैं और किसी भी काम को करने से पहले जब आप बिना भाव के उसको आगे बढ़ाते हैं तो वह भावनाहीन काम अभाव के रूप में दिखता है, उसके वो परिणाम नहीं आते। किसी व्यक्ति के अन्दर आत्मा बसती है तो ही वह व्यक्ति व्यक्ति है। यदि उसकी आत्मा तिरोहित हो जाए तो वो जिन्दा लाश की तरह होता है। यही भाव, स्वभाव, प्रभाव और अभाव है।
मित्रों! आप अपने जीवन में भावों को महत्वपूर्ण मानिये अन्यथा झूठे प्रभाव ज्यादा दिन तक टिकते नहीं और यदि झूठे प्रभाव से आप अपने जीवन अपना स्वभाव बना लेते हैं तो फिर आप निरन्तर अभाव की ओर बढ़ते रहेंगे। इसलिए भावों को अर्पण करिये, भगवान के चरणों में ही नहीं, दरिद्र नारायण के चरणों में भी तो वह आपका स्वभाव बनेगा और उससे आपका प्रभाव बढ़ेगा अन्यथा तो सर्वत्र भावनाओं का अभाव ही अभाव है।
डाॅ. प्रदीप कुमावत
लेखक, षिक्षाविद्,
सम्प्रति निदेषक
आलोक संस्थान
उदयपुर, राजस्थान
भाव, प्रभाव, स्वभाव और अभाव
नमस्कार मित्रों,
ऊपर के शीर्शक से आपका क्या सम्बन्ध है? यह तो आप स्वयं तय करेंगे, लेकिन इसके मूल में जहाँ आपको देश के चुनिंदा नायकों से नेतृत्व करने वाले महानुभावों से आप रूबरू होते हैं, वहीं आपका जो भाव है, जो सोच है उसको आप पुश्ट करते हैं और यह पुश्टि व्यक्ति के मन और मस्तिश्क में उन भावों के जागरण के बाद होती है जो गरिमामय, वैभवपूर्ण कार्यक्रमों को देखने के बाद हमारे अन्दर जागती है। जैसे पूजा करते समय हम भगवान को पुश्प धराते हैं, उन्हें वस्त्र पहनाते हैं और उनके सन्मुख भोग लगाते हैं। भोग लगाने के बाद ईश्वर उस भोग को यथार्थ रूप में नहीं खाता लेकिन हमारे मन के भाव यह अनुभूति देते हैं कि यह भोग में ईश्वर को धर रहा हूँ और वो मेरे इन भावों के माध्यम से प्रसाद के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। यही भाव आपकी पूजा को यथार्थ रूप में परिणीत कर आपके अन्दर एक ऐसी ऊर्जा भरता है जिससे आप अपने आपको शक्तिशाली अनुभव करते हैं तब आपकी पूजा सार्थक हो जाती है।
भावहीन प्रार्थना या भावहीन पूजा कोई मायने नहीं रखती। इसलिए कईं बार मन्दिर में आने वाले भक्त ईश्वर को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन वो पुजारी जो नियमित पूजा करता है एक नौकरी की तरह आरती उतारता है, उसे ईश्वरीय तत्त्व कभी प्राप्त नहीं होता। यदि वह उसे नौकरी समझकर करेगा तो और यदि वह रामकृश्ण की तरह पुजारी है तो वह पूजा करते-करते पहले प्रसाद स्वयं चख लेगा कि ईश्वर को जो प्रसाद मैं भोग लगा रहा हूँ वह खाने योग्य है भी या नहीं। ऐसे व्यक्ति को ईश्वर सहज और सरल रूप में प्राप्त हो जाते हैं। यहाँ भाव महत्वपूर्ण हैं क्रिया नहीं।
यहाँ भाव के पीछे एक ही है कि आप अपने प्रभाव से और आभामण्डल से जुड़े हुए हैं या आप अपने सेवा भाव से जुड़े हुए हैं। यदि आप सेवा भाव से जुड़े हुए हैं तो वो चकाचैंध, वो ग्लैमर, वो ऊँचे बैनर आपको सन्तुश्टि नहीं देंगे, लेकिन आपने कहीं रक्तदान किया है, किसी गरीब को कहीं ऊनी वस्त्र भेंट किया है, कहीं जाकर कम्बल भेंट की है या किसी चिकित्सा शिविर में कईयों का मोतियाबिन्द ठीक किया है, या थेलिसिमिया के पेशेन्ट को आपने ठीक किया है, या किसी की आपने हार्ट सर्जरी की है, या जयपुर फुट प्रदान किया है तो आपकी यह भावनाएँ आपको एक विचित्र सन्तुश्टि को जन्म देती हैं और यही सन्तुश्टि आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
जब आपके यह भाव निरन्तर इसी क्रम में बहते रहते हैं और इसी भाव को जब आप आगे बढ़ाते रहते हैं तब आपका यह सेवा का भाव स्वभाव में परिवर्तित हो जाता है और जब स्वभाव आपके मन के अन्तर्भावों से सीधा जुड़ा हुआ है, आपके एक ऐसे आभामण्डल को निर्मित करता है जिसे हम प्रभाव कहते हैं और व्यक्ति जब चलता है तो उसके पीछे का आभामण्डल कोई सूर्य की तरह गोला बनकर साथ नहीं चलता, आप द्वारा किए गए कार्य ही उसका प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यही प्रभाव जहाँ व्यक्ति खड़ा होता है वहाँ अपनी ऊर्जा को वहाँ बिखेरना शुरू करता है। लेकिन इससे परे एक चीज़ है वह है ‘अभाव’ और वह अभाव अपने भावों की अनुभूति को यदि आप सूक्ष्मतम स्तर पर रख पाते हैं और किसी भी काम को करने से पहले जब आप बिना भाव के उसको आगे बढ़ाते हैं तो वह भावनाहीन काम अभाव के रूप में दिखता है, उसके वो परिणाम नहीं आते। किसी व्यक्ति के अन्दर आत्मा बसती है तो ही वह व्यक्ति व्यक्ति है। यदि उसकी आत्मा तिरोहित हो जाए तो वो जिन्दा लाश की तरह होता है। यही भाव, स्वभाव, प्रभाव और अभाव है।
मित्रों! आप अपने जीवन में भावों को महत्वपूर्ण मानिये अन्यथा झूठे प्रभाव ज्यादा दिन तक टिकते नहीं और यदि झूठे प्रभाव से आप अपने जीवन अपना स्वभाव बना लेते हैं तो फिर आप निरन्तर अभाव की ओर बढ़ते रहेंगे। इसलिए भावों को अर्पण करिये, भगवान के चरणों में ही नहीं, दरिद्र नारायण के चरणों में भी तो वह आपका स्वभाव बनेगा और उससे आपका प्रभाव बढ़ेगा अन्यथा तो सर्वत्र भावनाओं का अभाव ही अभाव है।
डाॅ. प्रदीप कुमावत
लेखक, षिक्षाविद्,
सम्प्रति निदेषक
आलोक संस्थान
उदयपुर, राजस्थान
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