Dr. Pradeep Kumwat

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Friday 11 September 2015

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हिन्दी दिवस पर विषेश

हिन्दी की खो गयी है बिंदी

आज कुछ बात हिन्दी के हाल पर की जायें यह कोई सिंहावलोकन नहीं ना ही किसी हिन्दी की बिंदी के व्याकरण पर ही यहाँ कुछ कहाँ जा रहा है। हिन्दी की बिंदी से मेरा मतलब इतना ही है कि हिन्दी हमारे देष की भाशा है और राश्ट्र भाशा के रूप में मान्यता प्राप्त है। यानी भारत माता के भाल पर सौभाग्य की पहचान है हिन्दी की ये बिंदी। आजादी के पहले हिन्दी षायद जितनी सक्षम, जितनी प्रभावी, प्रेरणा देने  वाली सषक्त भाशा थी उसे दो सौ वर्शाें की अंग्रेजो की गुलामी ने अधमरा बना कर रख दिया। हम न तो पूरे ज बन पायें न पूरे हिन्दुस्तानी। काले अंग्रेज मैं नहीं कहूँगा लेकिन फिर भी हमने अंग्रेजी की दास्ता के बीच अपने मूल स्वरूप को खो दिया और 
उसके स्वरूप को इधर-उधर खोजने की कोषिष कर रहें है जैसे किसी बंद अंधेरे कमरे में कोई चीज खो जाये और वह बाहर उजाले में आकर ढूंढे लेकिन वह अन्दर खोई है उसे बाहर कैसे ढूंढोगे बस देष की हिन्दी के साथ ही ऐसा ही हुआ है। अन्दर ही हमने उसे दोयम स्तर का बना दिया है। हिन्दी हमारे भारत माँ के माथे की बिंदी है। उस बिंदी को ही हमने हटाकर हम इसे कौनसे दर्जे में रखना चाहेंगे यह चिंतन हम सबको करना है। जिन राश्ट्रों की 
स्वाभिमान की गाथाएं इतिहास में गायी जाती है वो राश्ट्र युद्व में विजयी रहें या हार गये यह भी कोई महत्वपूर्ण नहीं लेकिन उनके राश्ट्र के चरित्र की गाथाएं आज भी स्वाभिमान के साथ जो पढ़ी व सुनी जाती है वो चाहे जर्मनी हो, चाहे वो जापान हो, चाहे वो फ्रांस हो हर एक राश्ट्रअपने मौलिक तत्वों के प्रति इतना संवेदषील 
है कि न सिर्फ उसे देष के नाम से प्यार है वरन् उसे अपनी भाशा, अपनी बोली, अपनी परम्पराएं, अपना वेष सभी कुछ से उसे लगाव है लेकिन अंग्रेजों की दास्ता ने हम सभी भारतीयों को जिस तरह अपनी ही परम्पराओं खाने-पीने, पहनावे, अपनी भाशा, अपनी संस्कृति, 
अपने धर्म से अलगाव कर हमें हाषिये पर खड़ा करने का जो दुश्कर्म किया उसके परिणाम आज की पीढ़ी में स्पश्ट देखे जा सकते है जो न षुद्ध बोल सकती है न षुद्ध लिख सकती है। कहने को तो हम कह दे कि हिन्दी बहुसंख्यक प्रदेषों में बोली जाती है और विष्व स्तर हिन्दी स्थापित होने जा रही है लेकिन आज भी एक उच्च वर्गीय तबका हमारे देष में अंग्रेजी बोलने, अंग्रेजी कपड़े पहनने और अंग्रेजी व्यवहार को अपने जीवन का आर्दष बनाकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता है। किसी जमाने में हिन्दी का विरोध हुआ करता था लेकिन आज स्थिति वो नहीं है। फिर भी हिन्दी बोलचाल की  आम भाशा भले हो तथाकथित आधुनिक मुखौटा पहने लोग अंग्रेजी में ही रोते हंसते नजर आते है। आज हम अपने ही परिवारों में ही देख ले कि हिन्दी को कितनी अच्छे से लिख पाते है। जिस हिन्दी का विरोध महाराश्ट्र में एक राजनैतिक दल करता आया उनसे पूछे वो जिस देवनागरी को अपनायें हुये है वह देवनागरी मूलतः संस्कृत से है और वही देवनागरी हिन्दी की भी है। मूल रूप  से हम सब एक ही माँ के अलग-अलग बेटे है अधिकांष की लिपि देवनागरी है फिर भी कई प्रांतों में हिन्दी का विरोध है वह अप्रासंगिक, अतार्किक तथ्यों पर आधारित है। हिन्दी को बढ़ावा देने के लिये केवल गोश्ठीयाँ कर देना, अखबारों में सम्पादकीय लिख देने से नहीं चलेगा। अटल बिहारी वाजपेयी जी ने जब संयुक्त राश्ट्र संघ में हिन्दी भाशण दिया वह पल ऐतिहासिक था वह क्षण आज भी हम सब को गौरवान्वित करता है। वो प्रधानंमत्री होकर हिन्दी में भाशण दे सकते है तो हम सब हिन्दी बोलने में षर्म क्यों महसूस करते है? हिन्दी बोलने वाले को 
भी गर्व की अनुभूति हो। क्यों फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले को सम्मान देते है। ये हम सब के लिये सोचने का विशय है। हिन्दी की बिंदी आओ फिर लगाये। एक औरत के चेहरे पर ज्यों ही बिंदी लगती है उसकी सुन्दरता 
में चार चांद लग जाते है। हमें लगता है कि वह कुमकुम से भरी सौभाग्य का सूचक बिंदी है वह उसके माथे पर चमक रही है। माथे से निकल जाती है तो हम उसे अपषकुन मानते है। बिंदी हटी हुई औरत हमारे सामने से निकल जाये तो अपषकुन प्रतीत होता है। हमने इस भारत माता के भाल पर हिन्दी की जो बिंदी लगाई है उसे कुछ लोगों ने पोछने का भी प्रयास किया है। उसे चमकने दीजिये।  भारत माँ सदा सुहागन है करोड़ों संतानों वाली माँ की बिंदी कोई चाहकर भी नहीं हटा सकता।आईये हिन्दी की यह बिंदी चमकती रहे तो भारत माँ अखण्ड सौभाग्यवती बनकर सभी को आषीर्वाद देती रहेगी और हम सब को षुभकर्म के लिये प्रेरित भी करती रहेगी। हिन्दी दिवस की हार्दिक षुभकामनाएं।

डाॅ. प्रदीप कुमावत

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