Dr. Pradeep Kumwat

Dr. Pradeep Kumwat

Monday, 2 February 2015

Dati Maharaj Alok Visit



दाती महाराज का आलोक Mai भव्य स्वागत व अभिनन्दन
लक्ष्य ऊँचा रखो और हँसते हँसाते रहो जीवन सफल होगा: 
दाती महाराज उदयपुर 02 फरवरी। आलोक संस्थान, हिरण मगरी में दाती महाराज के आगमन पर उनका भव्य स्वागत व अभिनन्दन किया गया।
इस अवसर पर उन्होंने बोलते हुये कहा कि जीवन में निराष होने की आवष्यकता नहीं। जीवन सदैव उत्साह से जीना चाहिये। बच्चों से कहा सदा हंसते हंसाते रहो मुस्कराते रहो तो लक्ष्य षीघ्र प्राप्त कर लोगे अन्यथा भटक जाओगे। कोई ग्रह  तनाव नहीं देता समय के साथ समायोजन करें।
इससे पूर्व आलोक संस्थान के निदेषक डाॅ. प्रदीप कुमावत ने दाती महाराज का अभिनन्दन करते हुये कहा कि भय से मुक्ति का मार्ग दाती  महाराज ने चैनलो के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया है। अभिनन्दन करते हुये डाॅ. कुमावत ने कहा कि षनी के भय को जिस तरह दिखाया गया मानव कल्याण के लिये दाती महाराज ने उसे सही दिषा दी और लोगों को भय मुक्त कर प्रकाष की किरण उनके जीवन में फैलाई।
दाती महाराज के अनेक भक्त है और सेवा के संकल्प को आध्यात्म से जोड़कर दाती जी ने  मानव कल्याण का कार्य किया है।
इस अवसर पर आलोक संस्थान के निदेषक डाॅ. प्रदीप कुमावत ने दाती महाराज का महाराणा प्रताप की प्रतिमा, षाॅल, श्रीफल, मेवाड़ी पगड़ी एवं उपरना ओढ़ाकर अभिनन्दन किया।
इस अवसर पर बाल योगी ईष्वरानन्द जी ने भी छात्रांे को सम्बोधित किया।

Monday, 12 January 2015

Bahv

आलेख
भाव, प्रभाव, स्वभाव और अभाव
नमस्कार मित्रों,
       ऊपर के शीर्शक से आपका क्या सम्बन्ध है? यह तो आप स्वयं तय करेंगे, लेकिन इसके मूल में जहाँ आपको देश के चुनिंदा नायकों से नेतृत्व करने वाले महानुभावों से आप रूबरू होते हैं, वहीं आपका जो भाव है, जो सोच है उसको आप पुश्ट करते हैं और यह पुश्टि व्यक्ति के मन और मस्तिश्क में उन भावों के जागरण के बाद होती है जो गरिमामय, वैभवपूर्ण कार्यक्रमों को देखने के बाद हमारे अन्दर जागती है। जैसे पूजा करते समय हम भगवान को पुश्प धराते हैं, उन्हें वस्त्र पहनाते हैं और उनके सन्मुख भोग लगाते हैं। भोग लगाने के बाद ईश्वर उस भोग को यथार्थ रूप में नहीं खाता लेकिन हमारे मन के भाव यह अनुभूति देते हैं कि यह भोग में ईश्वर को धर रहा हूँ और वो मेरे इन भावों के माध्यम से प्रसाद के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। यही भाव आपकी पूजा को यथार्थ रूप में परिणीत कर आपके अन्दर एक ऐसी ऊर्जा भरता है जिससे आप अपने आपको शक्तिशाली अनुभव करते हैं तब आपकी पूजा सार्थक हो जाती है।
       भावहीन प्रार्थना या भावहीन पूजा कोई मायने नहीं रखती। इसलिए कईं बार मन्दिर में आने वाले भक्त ईश्वर को प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन वो पुजारी जो नियमित पूजा करता है एक नौकरी की तरह आरती उतारता है, उसे ईश्वरीय तत्त्व कभी प्राप्त नहीं होता। यदि वह उसे नौकरी समझकर करेगा तो और यदि वह रामकृश्ण की तरह पुजारी है तो वह पूजा करते-करते पहले प्रसाद स्वयं चख लेगा कि ईश्वर को जो प्रसाद मैं भोग लगा रहा हूँ वह खाने योग्य है भी या नहीं। ऐसे व्यक्ति को ईश्वर सहज और सरल रूप में प्राप्त हो जाते हैं। यहाँ भाव महत्वपूर्ण हैं क्रिया नहीं।
       यहाँ भाव के पीछे एक ही है कि आप अपने प्रभाव से और आभामण्डल से जुड़े हुए हैं या आप अपने सेवा भाव से जुड़े हुए हैं। यदि आप सेवा भाव से जुड़े हुए हैं तो वो चकाचैंध, वो ग्लैमर, वो ऊँचे बैनर आपको सन्तुश्टि नहीं देंगे, लेकिन आपने कहीं रक्तदान किया है, किसी गरीब को कहीं ऊनी वस्त्र भेंट किया है, कहीं जाकर कम्बल भेंट की है या किसी चिकित्सा शिविर में कईयों का मोतियाबिन्द ठीक किया है, या थेलिसिमिया के पेशेन्ट को आपने ठीक किया है, या किसी की आपने हार्ट सर्जरी की है, या जयपुर फुट प्रदान किया है तो आपकी यह भावनाएँ आपको एक विचित्र सन्तुश्टि को जन्म देती हैं और यही सन्तुश्टि आपको आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है।
जब आपके यह भाव निरन्तर इसी क्रम में बहते रहते हैं और इसी भाव को जब आप आगे बढ़ाते रहते हैं तब आपका यह सेवा का भाव स्वभाव में परिवर्तित हो जाता है और जब स्वभाव आपके मन के अन्तर्भावों से सीधा जुड़ा हुआ है, आपके एक ऐसे आभामण्डल को निर्मित करता है जिसे हम प्रभाव कहते हैं और व्यक्ति जब चलता है तो उसके पीछे का आभामण्डल कोई सूर्य की तरह गोला बनकर साथ नहीं चलता, आप द्वारा किए गए कार्य ही उसका प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यही प्रभाव जहाँ व्यक्ति खड़ा होता है वहाँ अपनी ऊर्जा को वहाँ बिखेरना शुरू करता है। लेकिन इससे परे एक चीज़ है वह है ‘अभाव’ और वह अभाव अपने भावों की अनुभूति को यदि आप सूक्ष्मतम स्तर पर रख पाते हैं और किसी भी काम को करने से पहले जब आप बिना भाव के उसको आगे बढ़ाते हैं तो वह भावनाहीन काम अभाव के रूप में दिखता है, उसके वो परिणाम नहीं आते। किसी व्यक्ति के अन्दर आत्मा बसती है तो ही वह व्यक्ति व्यक्ति है। यदि उसकी आत्मा तिरोहित हो जाए तो वो जिन्दा लाश की तरह होता है। यही भाव, स्वभाव, प्रभाव और अभाव है।
       मित्रों! आप अपने जीवन में भावों को महत्वपूर्ण मानिये अन्यथा झूठे प्रभाव ज्यादा दिन तक टिकते नहीं और यदि झूठे प्रभाव से आप अपने जीवन अपना स्वभाव बना लेते हैं तो फिर आप निरन्तर अभाव की ओर बढ़ते रहेंगे। इसलिए भावों को अर्पण करिये, भगवान के चरणों में ही नहीं, दरिद्र नारायण के चरणों में भी तो वह आपका स्वभाव बनेगा और उससे आपका प्रभाव बढ़ेगा अन्यथा तो सर्वत्र भावनाओं का अभाव ही अभाव है।

डाॅ. प्रदीप कुमावत
लेखक, षिक्षाविद्,
सम्प्रति निदेषक
आलोक संस्थान
उदयपुर, राजस्थान

पुस्तक ज्ञान का चिर स्थायी भण्डार

भारतीय संस्कृति पर आधारित पुस्तकों की प्रदर्षनी
पुस्तक ज्ञान का चिर स्थायी भण्डार
उदयपुर 23 सितम्बर। पुस्तकें ज्ञान का चिर स्थायी भण्डार है और बुरे वक्त की सबसे अच्छी मित्र और अच्छे वक्त की सच्ची मार्गदर्षक है। उक्त विचार आज यहाँ आलोक सी. सै. स्कूल, हिरण मगरी सेक्टर-11 में भारतीय संस्कृति पर आधारित पुस्तकों की प्रदर्षनी के उद्घाटन के अवसर पर बोलते हुये षिक्षाविद् डाॅ. प्रदीप कुमावत ने कहे।
    प्रदर्षनी का उद्घाटन आलोक संस्थान के निदेषक डाॅ. प्रदीप कुमावत ने किया। साथ ही उप प्राचार्य षषांक टांक, रेणुकला व्यास भी उपस्थित थे।
डाॅ. प्रदीप कुमावत ने कहा कि पुस्तकालय में भारतीय संस्कृति से सम्बंधित सभी प्रकार की पुस्तकों होनी चाहिये। हमारे प्रधानमंत्री जी ने भी कहा कि पुस्तके हमेषा पढ़ते रहना चाहिये। इनका उपयोग ऐसे आयोजनों से  बढ़े यहीं कामना है।
इस अवसर पर अभिभावकों को भी आमंत्रित किया गया व उन्होंने भी इस प्रदर्षनी को सराहा।

Alok Sansthan School Activities


Saral Ho Jaiye

  डाॅ. प्रदीप कुमावत, लेखक, षिक्षाविद्, सम्प्रति निदेषक , आलोक संस्थान, उदयपुर, राजस्थान
सरल हो जाईये
गत दिनों मेरे पास एक निमंत्रण पत्र आया जिसकी भाशा इतनी कठिन थी की सामान्य व्यक्ति को षब्द कोष की सहायता लेनी पड़े। जीवन में क्या श्रेश्ठता का मतलब कठिनता है? हाँ कोई व्यक्ति कठिनाईयों से झुझकर आगे बढ़ता है वह सफल जरूर होता है और उसका संघर्श उसे सम्मान दिलाता है लेकिन व्यक्ति का कठिन हो जाना, असम्भव हो जाना एक ऐसी  बात है जो सकारात्मक नहीं मानी जा सकती इसलिये जब कोई भी धर्म हो, कोई भी धार्मिक पुस्तक हो यहीं संदेष देती है कि व्यक्ति को सहज और सरल होना चाहिये। सहज और सरल होना कहना जितना सरल है हो जाना उतना ही कठिन है।
यदि हम किसी संगठन या संस्था से जुड़े होते है और हमंे किसी कार्यक्रम में जाने का मौका मिलता है तो हम प्रवेष द्वार के बाहर अपने-अपने व्यक्तित्व को, अपने-अपने पदांे को बाहर छोड़कर एक संगठन या संस्था के सदस्य नाते हम उस प्रवेष द्वार में घुसते है तो हमारा, तुम्हारा कोई नहीं होता हम सब एक टीम की तरह होते है। हम किसी भी पद पर हो, हमारे पास कितना भी पैसा हो पर जब हम किसी संगठन या संस्था  के सदस्य के नाते बैठते है तो अध्यक्ष को हम ऊँचा सम्मान देते है वह हमसे ऊँचे स्थान पर बैठता है और जब वो ऊँचे स्थान पर बैठता है तो उसे भी यह अहंकार नहीं होता कि वह ऊँचा है वह सिर्फ जिम्मेदारी निभाने के लिये ऊपर की ओर बैठा है बाकी के लोग उसको सहयोग के लिये नीचे की ओर बैठे है। जो व्यक्ति सहज, सरल होना सीख जाता है वो व्यक्ति ऊँचाईयांे को पा जाता है। यह एक षाष्वत् सत्य है।
एक प्राचीन कथा है। कथा अनुसार एक बार एक गुरू के पास राजा पहुँचता है और वह कहता है कि गुरूजी ईष्वर कहाँ है? तब गुरू उससे पुछते है कि मैं तो बता दूंगा पर तू यह बता कि कहाँ नहीं है? दोनों अपने-अपने उत्तरों की खोज में खो जाते है। राजा जब अपने राजमहल आता है तो यहीं बात अपने सभा में सभापतियों से पूछता है कि बताओं ईष्वर कहाँ है? यदि ईष्वर सब जगह है तो बताओं क्या इस लकड़ी के सिंहासन में है? यदि है तो तुम्हें कल तक सिद्ध करना होगा। वरना् तुम सब की गर्दन कलम कर दी जायेगी। सारे दरबारी हतप्रभ रह जाते है।
उसी दौरान द्वार पर खड़ा द्वारपाल मुस्करा रहा था। राजा ने उसकी मुस्कान को देख लिया। सभी दरबारी जब निकल जाते है तब राजा उस द्वारपाल को बुलाता है और कहता कि मैं जब सभी से ईष्वर की बात पूछ रहा था तब तुम मुस्करा रहें थे। यह सब लोग चिंता में थे कि यदि जवाब नहीं दिया तो कल सवेरे गर्दन उड़ा दी जायेगी। यद्यपि मैं ऐसा नहीं करता। तुम क्यों मुस्करायें? मुझे यह बताओं। तब उस द्वारपाल ने कहा कि मैं इसका उत्तर जानता हूँ। तुम उत्तर जानते है तो मुझे बताओं? तब उस द्वारपाल ने कहा कि राजन् प्रष्नों के उत्तर जानने के लिये आपको नीचे आना  होगा, क्योंकि ज्ञान की गंगा उल्टी प्रवाहित नहीं होती। ऊपर से नीचे आती है इसलिये आपको नीचे आना पड़ेगा। राजा नीचे की ओर आया। तब वह कहता है कि राजन आपको ऐसे ही उत्तर नहीं मिलने वाला। अब चूंकि गंगा नीचे बहती है तो मुझे ऊपर की ओर आसन पर जाना होगा। राजा को बहुत क्रोध आता है लेकिन फिर भी उसे कहता है कि कोई देख नहीं रहा है तुम उस सिंहासन पर बैठो। तब राजा उस द्वारपाल से कड़क आवाज में पूछता है कि अब बताओं जल्दी से। द्वारपाल फिर कहता है कि ऐसे नहीं राजन्। इसके लिये आपको थोड़ा विनम्र भाव से मुझसे निवेदन करना होगा तब ही मैं आपको ज्ञान दे पाऊँगा। राजा ने उससे बड़े ही विनम्र भाव से विनती कि। द्वारपाल ने फिर कहा राजन् ऐसे नहीं। ज्ञान प्राप्त करने के लिये गुरू की षरण में आना पड़ता है, आप मेरे चरण् का वंदन करो तो मैं आपको ज्ञान दे पाऊँगा कि ईष्वर है या नहीं? राजा का क्रोध सातवें आसमान पर था लेकिन उसे अपने प्रष्न के उत्तर की खोज थी। वह उसके चरणों में गिर पड़ा। और कहते है कि वह चरणों में जैसे ही गिरा उसे अपने जीवन की सारी समस्याओं के उत्तर मिल गये। क्यों कि ज्यों ही वह द्वारपाल के चरणों में गिरा तो राजारूपी अहंकार विसर्जित हो गया।
जिस दिन व्यक्ति का अहंकार विसर्जित हो जाता है वह परम् तत्वों को प्राप्त कर लेता है। द्वारपाल ने कहा राजन् उठिये मैं आपके प्रष्न का उत्तर देता हूँ? राजा ने कहा हे द्वारपाल! तू मेरा सबसे बड़ा गुरू है। आज तूने मुझे जीवन का वो सत्य दिखा दिया जो कोई नहीं सिखा सका। उस ज्ञान के लिये मै तेरा बहुत आभारी हूँ।
जीवन में व्यक्ति का जब अहंकार गिर जाता है, वह झुकना सीख जाता है तब वह सहज हो जाता है, सरल हो जाता है। जहाँ भी आपको कठिनाई महसुस हो, सरल हो जाईयेे, झुक जाईये, अपने अहंकार को विसर्जित कर दीजिये तब देखिये दुनिया आपके चरणों पर स्वतः झुकना षुरू कर देगी।
जो झुकता है वहीं बचता है। आंधी-तूफानों में जो पेड़ अकड़ कर खड़े रहते है वो पहली ही आंधी-तूफान में ध्वस्त हो जाते है जबकि वो घास के तिनके जो आंधी-तूफानों के साथ झुक जाते है वो तूफान के जाने के बाद फिर खड़े हो जाते है। यहीं जीवन का सत्य है।
मैं आप सभी साथियों से यहीं निवेदन करूँगा कि सहज हो जाईये, सरल हो जाईये।
जय भारत।

        डाॅ. प्रदीप कुमावत

Wednesday, 24 December 2014

Tribute to students died in pakistan

पाकिस्तान में आतंकवादी हमले में शहीद हुये स्कूल के बच्चो को श्र्द्धांजलि देते हुए अलोक संस्थान के निदेशक डॉ प्रदीप कुमावत और स्टूडेंट्स

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