विक्रम सम्वत् राष्ट्रीय क्यों? :::: प्रसिद्ध इतिहासकार कनिंघम ने ‘बुक आॅफ इण्डियन ऐराज’ पुस्तक में लिखा है कि - ‘भारत में कम से कम तेरह संवत् तो ऐसे हैं जो व्यापक रूप से इस्तेमाल में आते रहते हैं। कम प्रचलित या अचर्चित सम्वत् सैंकड़ों हो सकते हैं, लेकिन युधिष्ठिर, कलि या युगाब्द सम्वत् का प्रयोग प्राचीन साहित्य और शिलालेखों में प्रचुरता से आता है। उल्लेखनीय है कि ये दोनों सम्वत् इस्वीसन् से बहुत पुराने हैं। सवाल यह है कि इतने प्राचीन व्यावहारिक सम्वत् होते हुए भी हमें इस्वी सन् को अपनाने की जरूरत क्यों पड़ी? ऐसा नहीं है कि भारत में प्रचलित कालगणना त्रृटिपूर्ण है और ग्रेगरी कैलेण्डर इस्वीसन्, माह और तारीखें पूर्णतया युक्तिसंगत हैं। दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद सुधी अध्येयता निर्विवाद रूप से इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतीय कालगणना की भारतीय पद्धति ही ज्यादा युक्तिसंगत और वैज्ञानिक है। यूँ तो भारत में कई पंचाग प्रचलित हैं जिनकी गणना सूर्य और चन्द्र की गति पर ही निर्भर करती है और इन सभी पंचांगो का मूलाधार विस्तृत रूप में विक्रम सम्वत् के आधार पर ही टीका हुआ है। अतः चैत्र शुक्ला प्रतिपदा ही राष्ट्रीय आधार पर हमारा नूतन सम्वत माना जाता है । यहीं वर्श प्रतिपदा हमारा नववर्श है।
नव सम्वत्सर महोत्सव क्यों व कैसे?:::: हमारे मनीषियों के गहन अध्ययन के पश्चात् पृथ्वी के भ्रमण कक्ष की खोज की थी और तद्नुसार सौरमण्डल के अन्तर्गत् ग्रहों और नक्षत्रों की स्थितियों का ज्ञान किया था। इसी पर आधारित दिन, मास और वर्ष की सुस्पष्ट अवधारणा देकर एक विधिवत् पंचाग का ज्ञान हमें दिया था। हमें यह प्रकट करते हुए गर्व है कि आज भी हमारी संस्कृति के दैनिक व्रत, त्यौहार, धार्मिक अनुष्ठान उन्हीं तिथियों के आधार पर मनाते हैं। भारतीय नववर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही माना जाता हैं और इसी दिन से ग्रहों, वारो, मासों और संवत्सरों को प्रारंभ गणितीय और खगोल शास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता हैं। आज भी जन मानस से जुडी़ हुई यहीं शास्त्र सम्मत कालगणना व्यावहारिकता की कसौटी पर खरी उतरी हैं। इसे राष्ट्रीय गौरवशाली परंपरा का प्रतीक माना जाता हैं। विक्रमी संवत् किसी संकुचित विचारधारा या पंथाश्रित नहीं हैं। यह संवतसर किसी देवी, देवता या महान् पुरूष के जन्म पर आधारित नहीं, इसवी या हिजरी सन् भी मूल रूप से गणना की दृश्टि से इसी पंचाग को आधार बनाकर अपनी गणना करते है। हिजरी सम्वत् भी इसी गणना को मानता है लेकिन उनकी गणना चन्द्रमा से प्रारम्भ होती है और यहीं वजह ळै कि सिंध प्रांत कके निवासी जो अब सिंधी कहलाते है। चैत्र के चन्द्रमा को ही षुरूआत मानकर चेटीचण्ड पर्व मनाते है जिसका अर्थ ही चैत्र का चन्द्रमा है।
हमारा नव सम्वत्सर इतिहास के पन्नों से::::: एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्श पूर्व इसी दिन के सुर्याेदय से ब्रह्माजी ने जगत की रचना प्रांरभ की। इतिहास के झरोखों में देखा जाए तो ब्रह्माजी द्वारा सृश्टि की रचना, मर्यादा पुरुशोत्तत श्री राम का राज्याभिशेक, माँ दुर्गा की उपासना, नवरात्रि का प्रारम्भ, युधिश्ठिर सम्वत् का आरम्भ, उज्जैयिनी सम्राट विक्रमादित्य का विक्रमी सम्वत् का प्रारम्भ, षालिवाहन षक सम्वत् जो भारत सरकार का राश्ट्रीय पंचांग है। सम्वत्सर सृश्टि की रचना के समय से ही प्रचलित है तो इससे पुरातन कोई सम्वत् हो ही नहीं सकता। समय- समय पर राजाओं के षौर्य का सम्मान देने सम्वत्सर के आगे राजा का नाम जोड़ यष और कीर्ति को स्थायी करने की परम्परा चल निकली उसमें षालि वाहन सम्वत् व कालान्तर में विक्रमादित्य के नाम से सम्वत्सर को जोड़ा गया है जो चिरकाल पर चलन में आकर सम्वत्सर के आगे की अटक बन गया है तभी से सम्वत्सर के आगे विक्रम षब्द स्थायी चलन में परिवर्तित होकर विक्रम सम्वत् बन गया।
देव भूमि भारत:::: हमारी गौरवशाली परंपरा विशुद्व अर्थों में प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्वांतों पर आधारित हैं और भारतीय कालगणना का आधार पूर्णतया पंथ निरपेक्ष हैं। प्रतिपदा का यह शुभ दिन भारत राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक हैं। प्रकृति भी अपना नया वर्श चैत्र मास में ही प्रारम्भ करती है। इसके वृक्ष, लताएँ और नई कौंपलें चैत्र मास में फूटती हैं। वैसे तो सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग में जो कालखण्ड गुजरे हैं भारतीय काल गणना के अनुसार 1960853110 वर्श काल गणना के अनुसार आज तक माने गए हैं। शड् ऋतुओं का यह देष जिसे हम भारतवर्श कहते हैं काल चक्र की दृश्टि से और देवताओं के हिसाब से सबसे श्रेश्ठ स्थान पृथ्वी पर भारतवर्श को इसलिए माना गया क्योंकि छः ऋतुओं किसी और देष में नहीं होतीं। इसीलिए इसे देवभूमि भी कहा है। ऋग्वेद इस बात की पुश्टि करता है कि यह भूमि वस्तुतः यही भूखण्ड पूरा जिसे हम भारतवर्श कहते हैं यह देवताओं की ही भूमि रही है।
त्योहारों का संगम हैं नवसंवत्सर::::: हममें से अधिकांष लोग अपनी इस प्राचीन परम्परा को या तो भूल गए हैं या आधुनिकता की इस दौड़ में हम उसे याद नहीं रख पा रहे हैं। क्योंकि हमने अपनी सुविधा के हिसाब से ग्रिगोरियन कलैण्डर जनवरी, फरवरी को ही रोजमर्रा में इस्तेमाल होना मान लिया है। जबकि सत्य इससे परे है। भारतवर्श के प्रत्येक त्योहार, पर्व, व्रत, उपवास, मुहूर्त, षादी, ग्रह-प्रवेष, षुभ मुहूर्त सभी कुछ हमारे भारतीय नववर्श यानि विक्रम सम्वत् के पंचांग के आधार पर ही हमारे सारी गणना व्रत, उपवास, त्योहार इत्यादि तय होते हैं। हमारी गौरवषाली परम्पराओं में गणितीय और खगोलीय दृश्टि से भी यह पंचांग सारी दुनिया में सर्वश्रेश्ठ है इसमें लेषमात्र भी त्रुटि नहीं है और आज भी जनमानस से जुड़ी षास्त्र सम्मत काल गणना व्यावहारिक रूप से भी पूरी तरह से खरी उतरी है। इसे राश्ट्रीय गौरवषाली परम्परा का प्रतीक मानना चाहिये। इस दिन के साथ निम्न बाते भी जुड़ी हुई है: सृश्टि की रचना का दिन, राम का राज्याभिशेक, नवरात्र स्थापना, गुरू अंगद देव का जन्मदिवस, डाॅ. हेडगेवार का जन्मदिवस, आर्य समाज की स्थापना, धर्म राज्य युधिश्ठर का राज्याभिशेक।
शुक्ल पक्ष ही पवित्र:::: मूलतः यह नव सम्वत्सर के रूप में ही हमारे देष में सदियों-सदियों से मनाया जाता रहा है। चैत्र षुक्ल प्रतिपदा यानि षुक्ल पक्ष, ऋग्वेद के आधार पर षुक्ल पक्ष ही हमारी आध्यात्मिक और दैविक षक्तियों का सबसे अत्यधिक प्रभावषाली कालखण्ड माना गया है इसलिए हमारे काल गणना में भी षुक्ल पक्ष से ही नववर्श की प्रतिपदा मानी गई है। कृश्ण पक्ष को नव सम्वत्सर नहीं माना है। अथर्ववेद में भी सम्वत्सर को ईष्वर के सबसे नज़दीक दिवस इसी नववर्श की प्रतिपदा को माना है और वैसे सम्वत्सर का मूल अर्थ देखा जाए तो वर्श ही है।
पर्व एक नाम अनेक:::: इसके वैसे तो कईं नाम है, अलग-अलग प्रदेषों में अलग-अलग नाम हैं। महाराश्ट्र में इसे हम गुडीपड़वा, उगादी भी कहते हैं, यहीं से नववर्श का प्रारम्भ होता है। गुड़ी का अर्थ विजय पताका होती है। कहा जाता है कि षालीवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़क कर उसमें प्राण फूँक दिये और सेना की मदद से षक्तिषाली षत्रुओं को पराजित किया। इसी विजय के प्रतीक के रूप में षालीवाहन षक सम्वत् का प्रारम्भ हुआ। आन्धप्रदेष, कनार्टक में उगादी, महाराश्ट्र मे गुड़ीपाड़वा, कष्मीरी हिन्दुओं के लिए भी यह नवरेक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में नववर्श, पंजाब में बैसाखी, इन्हीं चैत्र के आसपास पन्द्रह-पन्द्रह दिनों के अन्तर में मनाया जाता है।
रोगोपचार का दिन:::: इस अवसर पर आंध्र प्रदेश में, घरों में पच्चडी़/प्रसादम तीर्थ के रूप में बांटा जाता हैं। कहा जाता हैं कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता हैं। चर्म रोग भी दूर होता हैं। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पाली या मीठी रोटी बनाई जाती हैं। इसमें जो चीजें मिलाई जाती हैं, वे हैं-गुड़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आम। गुड़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए, और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक होती हैं। यूं तो आजकल आम बाजार मे मौसम से पहले ही आ जाता हैं। किंतु आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में इसी दिन से खाया जाता हैं। नौ दिन तक मनाया जाना वाला यह त्योहार दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को भगवान श्रीराम का जन्मोत्सव भी मनाए जाते हैं।
ऋतिुओं का संधिकाल:::: आज भी हमारे देश में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोष आदि के चालन-संचालन में मार्च, अप्रैल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। यह समय दो ऋतुओं का संधिकाल हैं। इसमें राते छोटी और दिन बडे होने लगते हैं। प्रकृति नया रूप धर लेती हैं। प्रतीत होता हैं कि प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जस्वित होती हैं। मानव, पशु-पक्षी, यहा तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्साग सचेतन हो जाती हैं। बसंतोत्सव का भी यही आधार हैं। इसी समय बर्फ पिघलने लगती हैं। आमों पर बौर आने लगता हैं। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती हैं। ईष्वी सन् में भी नये खाते व बजट का चलन मार्च में ही षुभ होता है जो कि भारतीय परम्परा के नववर्श के आधार को ओर पुश्ट करता है।
भारतीय पंचाग के अनुसार 1 जनवरी को आज तक कभी भी किसी षुभ कार्य का मुहूर्त नहीं निकला हैं। जबकि चैत्र षुक्ल प्रतिपदा को प्रवरा अर्थात् वर्शभर की सर्वोतम तिथि माना गया हैं। ऐसा माना जाता हैं कि इस दिन किए गए दान-पुण्यादि कृत्य अनन्त गुने फलदायी होते हैं। इस दिन किसी भी कार्य को करने हेतु पंचांग षुद्वि देखने की आवष्यकता नहीं हैं।
अंत में: कितने इतिहासों को अपने अंदर समेटे हुए हैं यह नवसंवत्सर। परंतु, आज भी हममें से अधिकतर भारतीय अपने इस नवसंवत्सर बारे में नहीं जानते, जानते हैं तो सिर्फ एक जनवरी के बारे में कि यही हैं नववर्ष। लेकिन, यह पाश्चात्य देशों का नववर्ष हैं, वो भी सभी पाश्चात्य देशों का नहीं। क्योंकि विश्व के लगभग सभी पाश्चात्य देशों का अपना एक अलग कैलेंड़र होता हैं जिसके आधार पर वह अपना नववर्ष मनाते है। इस वर्ष नवसंवत्सर पर सच्चा संकल्प यहीं होगा कि हम सभी भारतवासी अपने संस्कृति और सभ्यता के बारे में जानने की कोशिश करें एवं उसे अपनाएं तथा हैप्पी न्यू ईयर ना बोले ना स्वीकारे।
डाॅ. प्रदीप कुमावत
लेखक, षिक्षाविद्, प्रखर वक्ता,
समाजसेवी, पर्यावरणविद्
सम्प्रति: निदेषक आलोक संस्थान
उदयपुर (राज.)